झुंझुनू का इतिहास
शेखावाटी के झुंझनू मंडल के उत्प्थगामी मुस्लिम शासकों को पराजित कर धीर वीर ठाकुर शार्दुलसिंह ने झुंझनू पर संवत. 1787 में अपनी सत्ता स्थापित की थी। झुंझनु में कायमखानी चौहान नबाब के भाई बंधू अनय पथगामी हो गये थे। उन्हें रणभूमि में पद दलित कर शेखावत वीर शार्दुलसिंह ने झुंझनू पर अधिपत्य स्थापित किया। इस विजय में उनके कायमखानी योद्धा भी सहयोगी थे। ठाकुर शार्दुलसिंह समन्यवादी शासक थे। उन्होंने झुंझनू पर विजय प्राप्त कर नरहड़ के पीर दरगाह की व्यवस्था के लिए एक गांव भेंट किया और कई स्थानों पर नवीन मंदिर बनवाये और चारणों को ग्रामदि भेंट तथा दान में दिये।
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ठाकुर शार्दुलसिंह के तीन रानियों से छह प्रतापी पुत्र रत्न हुए। उन्होंने अपने जीवन काल में ही राज्य को पांच भागों में विभाजित कर अपने पांच जीवित पुत्रों के सुपुर्द कर दिया और अपने जीवन के चतुर्थ काल में परशुरामपुरा ग्राम में चले गये। वहां वे ईश्वराधना और भागवद धर्म का चिंतन मनन करने में दत्तचित्त रहने लगे और वहीं उन्होंने देहत्याग किया। परशुरामपुरा में उनकी भव्य व विशाल छत्री बनी है।
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खेतड़ी के ठाकुर को कोटपुतली का परगना और राजा बहादुर का उपटंक प्राप्त होने पर उनकी प्रतिष्ठा में और वृद्धि हुई। यहाँ के पांचवें शासक राजा फतहसिंह के बाद राजा अजीतसिंह अलसीसर से दत्तक आकर खेतड़ी की गद्दी पर आसीन हुये। वे अपने सम-सामयिक राजस्थानी नरेशों और प्रजाजनों में बड़े लोकप्रिय शासक थे। वे जैसे प्रजा हितैषी, न्याय प्रिय, कुशल प्रबंधक, उदारचित्त थे, वैसे ही विद्वान, कवि और भक्त हृदय भी थे। राजस्थान के अनेक कवियों ने राजा अजीतसिंह की विवेकशीलता, न्यायप्रियता और गुणग्राहकता की प्रशंसा की है। जोधपुर के प्रसिद्ध कवि महामहोपाध्याय कविराज मुरारिदान आशिया ने कहा-
दान छड़ी कीरत दड़ी, हेत पड़ी तो हाथ।
भास चडी अंग ना भिड़ी, नमो खेतड़ी नाथ।।
राजा अजीतसिंह की उदारता और वदान्यता को लक्ष्य कर कवि जुगतीदान बोरुंदा ने कहा है-
रीझ झड़ी मण्डी रहै, बापो घड़ी बतीस।
लोभ बड़ी को लोपगो, धिनो खेतड़ी धीस।।
स्वामी विवेकानन्द और राजा अजीत सिंह के सम्बन्ध
स्वामी विवेकानन्द को विश्वधर्म परिषद और यूरोपीय देशों में धर्म प्रचारार्थ भिजवाने में प्रमुख राजा अजीतसिंह खेतड़ी ही थे। स्वामी विवेकानन्द और अजीतसिंह के सम्बन्ध सामीप्य का लम्बा इतिहास है। राजा अजीतसिंह हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत और राजस्थानी के सुयोग्य विद्वान और कवि थे। मुझे शाहपुरा राज्य (मेवाड़) के राजकीय ग्रंथागार में उनके पत्र और कव्यादि के हस्ताक्षरित दस्तावेजों के अवलोकन करने का सौभाग्य मिला है। उनके हिंदी और अंग्रेजी के अक्षर अतीव सुन्दर और स्पष्ट थे।
राजा अजीतसिंह संगीत के भी बड़े ज्ञाता थे। जब वे वीणा वादन करते थे तब स्वामी विवेकानन्द “प्रभु मोरे अवगुन चित्त न धरो” पद को बार-बार घंटों गाते रहते थे और दोनों अभिन्न हृदय झूम उठते थे। राजा अजीतसिंह एक न्याय प्रिय शासक ही नहीं अपितु, भक्त एवं दार्शनिक विद्वान थे। शेखावाटी के साहित्यकारों, धनाढ्यों और राजा खेतड़ी ट्रस्ट को इस महान विभूति के साहित्य का प्रकाशन करना चाहिए।
राजा अजीतसिंह के एक अप्रकाशित भक्ति पद की कुछ पंक्तियाँ-
अब पिय पायो री मेरो, मैं तो कीन्हों बहुत ढंढेरो।
दृढ विराग को पिलंग बिछायो, दीपक ज्ञान उजेरो।।
करुणा आदि सखी चहुँ औरी, आनन्द भयो घनेरो।
भेद दीठ वह सोति भरी तब, मिल गयो घर को नेरो।।
ताहि रिझाय करुँगी मैं अपनो, अपनो आपो हेरो।
नाहीं गिनो लगन निशि वासर, नाहीं न सांझ सवेरो।।
खुद मस्ती मद प्यालो पीके, दूजों भयो न फेरो।
घिल मिल हो के रंग में छाकी, तेरो रह्यो न मेरो।।
कवि और भक्त हृदय राजा अजीतसिंह ने उपर्युक्त पद में पिता परमेश्वर को पति रूप में स्मरण कर रूपक बाँधा है। इसमें वैराग्य रूपी पलंग बिछाया है और उसमें ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश किया है। दया और करुणा रूपी सखियों को साथ लेकर भेद रूपी सौतन को मारकर निर्भयता प्राप्त की है। अब उनके बीच कोई भी बाधक नहीं बचा है। खुद मस्ती के मद के चषक का पान कर मस्त हो जाना प्रकट किया है और द्वैत भाव को नष्ट कर दिया है।
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शेखावाटी के झुंझनू मंडल के उत्प्थगामी मुस्लिम शासकों को पराजित कर धीर वीर ठाकुर शार्दुलसिंह ने झुंझनू पर संवत. 1787 में अपनी सत्ता स्थापित की थी। झुंझनु में कायमखानी चौहान नबाब के भाई बंधू अनय पथगामी हो गये थे। उन्हें रणभूमि में पद दलित कर शेखावत वीर शार्दुलसिंह ने झुंझनू पर अधिपत्य स्थापित किया। इस विजय में उनके कायमखानी योद्धा भी सहयोगी थे। ठाकुर शार्दुलसिंह समन्यवादी शासक थे। उन्होंने झुंझनू पर विजय प्राप्त कर नरहड़ के पीर दरगाह की व्यवस्था के लिए एक गांव भेंट किया और कई स्थानों पर नवीन मंदिर बनवाये और चारणों को ग्रामदि भेंट तथा दान में दिये।
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ठाकुर शार्दुलसिंह के तीन रानियों से छह प्रतापी पुत्र रत्न हुए। उन्होंने अपने जीवन काल में ही राज्य को पांच भागों में विभाजित कर अपने पांच जीवित पुत्रों के सुपुर्द कर दिया और अपने जीवन के चतुर्थ काल में परशुरामपुरा ग्राम में चले गये। वहां वे ईश्वराधना और भागवद धर्म का चिंतन मनन करने में दत्तचित्त रहने लगे और वहीं उन्होंने देहत्याग किया। परशुरामपुरा में उनकी भव्य व विशाल छत्री बनी है।
खेतड़ी राजा अजीत सिंह की दुर्लभ तस्वीर |
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शार्दुलसिंह के राज्य के पांच भागों में बंट जाने के कारण यह पंचपाना के नाम से जाना जाता है। पंचपाना में उनके ज्येष्ठ पुत्र जोरावरसिंह के वंशधर चौकड़ी, मलसीसर, मंडरेला, चनाना, सुलताना, टाई और गांगियासर के स्वामी हुये। द्वितीय पुत्र किशनसिंह के खेतड़ी, अडुका, बदनगढ़, तृतीय नवलसिंह के नवलगढ़, मंडावा, मुकन्दगढ, महणसर, पचेरी, जखोड़ा, इस्माइलपुर, बलोदा और चतुर्थ केसरीसिंह के बिसाऊ, सुरजगढ और डूंडलोद आदि ठिकाने थे.। ये ठिकाने अर्द्ध-स्वतंत्र संस्थान थे. जयपुर राज्य से इनका नाम मात्र का सम्बन्ध था। कारण यह भूभाग शार्दूलसिंह और उसके वंशजों ने स्वबल से अर्जित किया था।source- google images
खेतड़ी के ठाकुर को कोटपुतली का परगना और राजा बहादुर का उपटंक प्राप्त होने पर उनकी प्रतिष्ठा में और वृद्धि हुई। यहाँ के पांचवें शासक राजा फतहसिंह के बाद राजा अजीतसिंह अलसीसर से दत्तक आकर खेतड़ी की गद्दी पर आसीन हुये। वे अपने सम-सामयिक राजस्थानी नरेशों और प्रजाजनों में बड़े लोकप्रिय शासक थे। वे जैसे प्रजा हितैषी, न्याय प्रिय, कुशल प्रबंधक, उदारचित्त थे, वैसे ही विद्वान, कवि और भक्त हृदय भी थे। राजस्थान के अनेक कवियों ने राजा अजीतसिंह की विवेकशीलता, न्यायप्रियता और गुणग्राहकता की प्रशंसा की है। जोधपुर के प्रसिद्ध कवि महामहोपाध्याय कविराज मुरारिदान आशिया ने कहा-
दान छड़ी कीरत दड़ी, हेत पड़ी तो हाथ।
भास चडी अंग ना भिड़ी, नमो खेतड़ी नाथ।।
राजा अजीतसिंह की उदारता और वदान्यता को लक्ष्य कर कवि जुगतीदान बोरुंदा ने कहा है-
रीझ झड़ी मण्डी रहै, बापो घड़ी बतीस।
लोभ बड़ी को लोपगो, धिनो खेतड़ी धीस।।
स्वामी विवेकानन्द और राजा अजीत सिंह के सम्बन्ध
स्वामी विवेकानन्द को विश्वधर्म परिषद और यूरोपीय देशों में धर्म प्रचारार्थ भिजवाने में प्रमुख राजा अजीतसिंह खेतड़ी ही थे। स्वामी विवेकानन्द और अजीतसिंह के सम्बन्ध सामीप्य का लम्बा इतिहास है। राजा अजीतसिंह हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत और राजस्थानी के सुयोग्य विद्वान और कवि थे। मुझे शाहपुरा राज्य (मेवाड़) के राजकीय ग्रंथागार में उनके पत्र और कव्यादि के हस्ताक्षरित दस्तावेजों के अवलोकन करने का सौभाग्य मिला है। उनके हिंदी और अंग्रेजी के अक्षर अतीव सुन्दर और स्पष्ट थे।
राजा अजीतसिंह संगीत के भी बड़े ज्ञाता थे। जब वे वीणा वादन करते थे तब स्वामी विवेकानन्द “प्रभु मोरे अवगुन चित्त न धरो” पद को बार-बार घंटों गाते रहते थे और दोनों अभिन्न हृदय झूम उठते थे। राजा अजीतसिंह एक न्याय प्रिय शासक ही नहीं अपितु, भक्त एवं दार्शनिक विद्वान थे। शेखावाटी के साहित्यकारों, धनाढ्यों और राजा खेतड़ी ट्रस्ट को इस महान विभूति के साहित्य का प्रकाशन करना चाहिए।
राजा अजीतसिंह के एक अप्रकाशित भक्ति पद की कुछ पंक्तियाँ-
अब पिय पायो री मेरो, मैं तो कीन्हों बहुत ढंढेरो।
दृढ विराग को पिलंग बिछायो, दीपक ज्ञान उजेरो।।
करुणा आदि सखी चहुँ औरी, आनन्द भयो घनेरो।
भेद दीठ वह सोति भरी तब, मिल गयो घर को नेरो।।
ताहि रिझाय करुँगी मैं अपनो, अपनो आपो हेरो।
नाहीं गिनो लगन निशि वासर, नाहीं न सांझ सवेरो।।
खुद मस्ती मद प्यालो पीके, दूजों भयो न फेरो।
घिल मिल हो के रंग में छाकी, तेरो रह्यो न मेरो।।
कवि और भक्त हृदय राजा अजीतसिंह ने उपर्युक्त पद में पिता परमेश्वर को पति रूप में स्मरण कर रूपक बाँधा है। इसमें वैराग्य रूपी पलंग बिछाया है और उसमें ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश किया है। दया और करुणा रूपी सखियों को साथ लेकर भेद रूपी सौतन को मारकर निर्भयता प्राप्त की है। अब उनके बीच कोई भी बाधक नहीं बचा है। खुद मस्ती के मद के चषक का पान कर मस्त हो जाना प्रकट किया है और द्वैत भाव को नष्ट कर दिया है।
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