भुवनेश्वर: भुवनेश्वर से करीब चार सौ किमी दूर कुंजियाम गांव (मइरभंझ जिला) के रास्ते में पड़ता है रोरुआ गांव। यहां जैसे ही मीडिया की नज़र पड़ी- दर्जनों तो टूटे घर और घरों में रखे चपटे बर्तन दिखाई दिए। ऐसा लग रहा था, जैसे अभी कोई तूफान आकर गुजरा हो। पुरे गांव में सन्नाटा पसरा पड़ा था है। कुछ लोग टूटे घरों को उम्मीदों के गारों से फिर जोड़ने में जुटे थे।
पूछने पर पता चला कि साल भर की मेहनत पर हाथियों ने पानी फेर दिया है। हाथियों के झुंड घर का अन्न, धान की फसल सब खा गए। गांव के लोग बताते हैं कि यहां आए दिन ऐसी बर्बादी होती है। आलम यह है कि गांव के लोग बेहद संकोच और निराशा के साथ पेट भरने की मजबूरी के बारे में बताते हैं।
आज के तकनीक युग में प्रशासन के विकास की मुहर के दायरे में ये गांव नहीं आते है। गांव वाले अभी भी इतने पिछड़े है कि प्रशासन के सामने ठीक से खड़े होने का साहस भी नहीं रखते।
गाँव की हालत बेहद खराब
यहां ऐसा दारुण दारिद्रय है कि लोग हाथियों की लीद से अन्न साफ कर-कर के खाने को मजबूर हैं। मीडिया रिपोर्टर टीम को यह सुनकर धक्का लगा। ऐसे में और पड़ताल की तो पता चला कि आडिशा और झारखंड की सीमा से सटे हुए कुंजियाम गांव में करीब 200 घर हैं। इनमें अधिकांश अनुसूचित जनजाति के लोग रहते हैं। इस गांव के करीब डेढ़ दर्जन परिवार इसी तरह खाने को मजबूर हैं।
कुंजयाम गांव के संतोष ने मीडिया को बताया कि पिछले सवा दशक से गांव के लोग खाने के लिए इतने मजबूर हैं कि ऐसा जुगाड़ कर हैं। हर साल हाथी आते हैं, खेत तबाह करते हैं और खड़ी आधी फसल को खा जाते हैं।
डेढ़ दर्जन गाँवों की हालत खस्ता
यही नहीं कुंजयाम और आस-पास के करीब डेढ़ दर्जन गांवों की ऐसी ही स्थिति है। जो लोग थोड़े संपन्न हैं वो तो बर्बादी के बाद भी गुजर-बसर कर लेते हैं, लेकिन 100 से ज्यादा परिवार ऐसे हैं जो इतने मजबूर हैं कि उन्हें अन्न की तलाश हाथियों की लीद तक ले जाती है।
प्रशासन के सामने बोलने से लगता है डर
हम लोग जिस समुदाय से हैं वो प्रशासन और सरकार के सामने बोलने से डरते हैं। मौखिक तौर पर शिकायत की लेकिन हल कुछ नहीं निकला। मुआवजा हम लोगों के लिए नाकाफी होता है। गांव के लबोदर बताते हैं कि ऐसा खाना कौन खाना चाहता है लेकिन मजबूरी सब कुछ करवाती है।
इसके बारे में हम दूसरों से खुलकर बात भी नहीं करते हैं। कभी-कभी तो हम लोगों को हाथियों से बचने के लिए कई-कई रात मचान पर सोकर बितानी पड़ती है क्योंकि खाने की तलाश में हाथियों का झुंड घरों को नष्ट कर देता है। स्थानीय निवासी लिली भरकर बताती हैं हाथियों का झुंड किसी खेत पर धावा बोलता है। उस खेत की आधी धान की फसल खा लेता हैं।
पेट भरने का केवल एक ही रास्ता
गांववालों के मुताबिक पेट भरने के बाद हाथी या तो वहीं आराम करते हैं या उनकी चाल बेहद सुस्त हो जाती है। कभी-कभी खेत से या हाथियों का पीछा करते वक्त परिवार के पुरुष हाथियों की लीद को ज्यादा से ज्यादा इकट्ठा करते हैं और घर लाते हैं, घर की महिलाएं बालू छानने वाली छन्नी से लीद को साफ करती हैं। फिर उसके बाद उसमें से कटहल की गुठलियां, धान और फलों के बीज को अलग कर लेते हैं।
चबाकर न खाने की वजह से हाथी के पेट में चावल पचता नहीं हैं। इसके बाद इन्हें पानी से धोकर कड़क धूप में सुखाने के लिए रख देते हैं। इस तरह ये लोग कुछ समय तक पेट भरने लायक जुगाड़ कर लेते हैं। हालांकि इस तरह से जुगाड़ से खाने का इंतजाम ये लोग सितंबर से अक्टूबर के दौरान ही ज्यादा करते हैं। बाकी समय में हाथियों की हलचल कम हो जाती है।
Source- Dainik Bhaskar
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पूछने पर पता चला कि साल भर की मेहनत पर हाथियों ने पानी फेर दिया है। हाथियों के झुंड घर का अन्न, धान की फसल सब खा गए। गांव के लोग बताते हैं कि यहां आए दिन ऐसी बर्बादी होती है। आलम यह है कि गांव के लोग बेहद संकोच और निराशा के साथ पेट भरने की मजबूरी के बारे में बताते हैं।
आज के तकनीक युग में प्रशासन के विकास की मुहर के दायरे में ये गांव नहीं आते है। गांव वाले अभी भी इतने पिछड़े है कि प्रशासन के सामने ठीक से खड़े होने का साहस भी नहीं रखते।
गाँव की हालत बेहद खराब
यहां ऐसा दारुण दारिद्रय है कि लोग हाथियों की लीद से अन्न साफ कर-कर के खाने को मजबूर हैं। मीडिया रिपोर्टर टीम को यह सुनकर धक्का लगा। ऐसे में और पड़ताल की तो पता चला कि आडिशा और झारखंड की सीमा से सटे हुए कुंजियाम गांव में करीब 200 घर हैं। इनमें अधिकांश अनुसूचित जनजाति के लोग रहते हैं। इस गांव के करीब डेढ़ दर्जन परिवार इसी तरह खाने को मजबूर हैं।
कुंजयाम गांव के संतोष ने मीडिया को बताया कि पिछले सवा दशक से गांव के लोग खाने के लिए इतने मजबूर हैं कि ऐसा जुगाड़ कर हैं। हर साल हाथी आते हैं, खेत तबाह करते हैं और खड़ी आधी फसल को खा जाते हैं।
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डेढ़ दर्जन गाँवों की हालत खस्ता
यही नहीं कुंजयाम और आस-पास के करीब डेढ़ दर्जन गांवों की ऐसी ही स्थिति है। जो लोग थोड़े संपन्न हैं वो तो बर्बादी के बाद भी गुजर-बसर कर लेते हैं, लेकिन 100 से ज्यादा परिवार ऐसे हैं जो इतने मजबूर हैं कि उन्हें अन्न की तलाश हाथियों की लीद तक ले जाती है।
प्रशासन के सामने बोलने से लगता है डर
हम लोग जिस समुदाय से हैं वो प्रशासन और सरकार के सामने बोलने से डरते हैं। मौखिक तौर पर शिकायत की लेकिन हल कुछ नहीं निकला। मुआवजा हम लोगों के लिए नाकाफी होता है। गांव के लबोदर बताते हैं कि ऐसा खाना कौन खाना चाहता है लेकिन मजबूरी सब कुछ करवाती है।
इसके बारे में हम दूसरों से खुलकर बात भी नहीं करते हैं। कभी-कभी तो हम लोगों को हाथियों से बचने के लिए कई-कई रात मचान पर सोकर बितानी पड़ती है क्योंकि खाने की तलाश में हाथियों का झुंड घरों को नष्ट कर देता है। स्थानीय निवासी लिली भरकर बताती हैं हाथियों का झुंड किसी खेत पर धावा बोलता है। उस खेत की आधी धान की फसल खा लेता हैं।
पेट भरने का केवल एक ही रास्ता
गांववालों के मुताबिक पेट भरने के बाद हाथी या तो वहीं आराम करते हैं या उनकी चाल बेहद सुस्त हो जाती है। कभी-कभी खेत से या हाथियों का पीछा करते वक्त परिवार के पुरुष हाथियों की लीद को ज्यादा से ज्यादा इकट्ठा करते हैं और घर लाते हैं, घर की महिलाएं बालू छानने वाली छन्नी से लीद को साफ करती हैं। फिर उसके बाद उसमें से कटहल की गुठलियां, धान और फलों के बीज को अलग कर लेते हैं।
चबाकर न खाने की वजह से हाथी के पेट में चावल पचता नहीं हैं। इसके बाद इन्हें पानी से धोकर कड़क धूप में सुखाने के लिए रख देते हैं। इस तरह ये लोग कुछ समय तक पेट भरने लायक जुगाड़ कर लेते हैं। हालांकि इस तरह से जुगाड़ से खाने का इंतजाम ये लोग सितंबर से अक्टूबर के दौरान ही ज्यादा करते हैं। बाकी समय में हाथियों की हलचल कम हो जाती है।
Source- Dainik Bhaskar