मानव स्वभाव ही ऐसा है कि वह भावनाओं के साथ जुड़ा होने के कारण बहुत अधिक क्रूर नहीं हो पाता। कुछ खास परिस्थितियों को छोड़कर इंसानों से इंसानों को कोई खतरा नहीं होता। खासकर सभ्यता ने परिवार नाम का जो सामाजिक ढ़ांचा दिया उसमें हम अपने आप को पूरी तरह सुरक्षित मानते हैं। पर सोचिए अगर परंपरा के नाम पर परिवार ही किसी को गिद्धों, चील-कौओं के सामने टुकड़ों में काटकर फेंक दे! यह सिर्फ कल्पना नहीं बल्कि संसार के एक छोटे से हिस्से का सच भी है।
मानव जीवन का सबसे बड़ा फायदा होता है परिवार और रिश्ते नाते। हमारा समाज परिवार से बनता है। जिंदगी के हर सुख-दुख में हमारा परिवार ही हमारे साथ होता है। जीवन की शुरूआत से लेकर जीवन के अंत तक हमारा परिवार हमसे किसी ना किसी रूप में जुड़ा रहता है। परिवार से क्रूरता की उम्मीद कम ही होती है लेकिन तिब्बत में एक परंपरा के अनुसार मृतकों के क्रियाकर्म की अनोखी प्रथा प्रचलन में थी। इसके अनुसार मृत व्यक्ति के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़ों को चाय और याक के दूध में डुबो कर उन्हें गिद्धों के सामने परोस दिया जाता था। और यह सब कोई और नहीं बल्कि मृतक के परिजन ही करते थे।
लाश को दफनाना, जलाना, नदी में बहाना आदि तो हम जानते हैं लेकिन लाश के टुकड़े करके उसे गिद्धों के सामने डाल देना वाकई अविश्वसनीय है। इस प्रथा में एक और चीज आपके होश उड़ा देगी कि यह लोग मृतक के मांस के टुकड़े तो गिद्धों को डालते ही थे साथ ही जब गिद्ध मांस खाकर उड़ जाते थे तो बची हुए हड्डियों को भी कूटकर दुबारा कौवों और बाज को खिलाते थे।
मौत के बाद शवों की ऐसी दुर्दशा को तिब्बतवासी एक परंपरा मानते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से मृतक जल्दी भगवान के पास पहुंच कर दूसरा जन्म लेता है। इसके पीछे दूसरी वजह यह भी है कि तिब्बत की जमीन पथरीली है इसलिए वहां जमीन में दफनाना थोड़ा मुश्किल काम होता है साथ ही जलावन और ऊर्जा की कमी की वजह से यह प्रथा प्रचलन में आई।
लाश को दफनाना, जलाना, नदी में बहाना आदि तो हम जानते हैं लेकिन लाश के टुकड़े करके उसे गिद्धों के सामने डाल देना वाकई अविश्वसनीय है। इस प्रथा में एक और चीज आपके होश उड़ा देगी कि यह लोग मृतक के मांस के टुकड़े तो गिद्धों को डालते ही थे साथ ही जब गिद्ध मांस खाकर उड़ जाते थे तो बची हुए हड्डियों को भी कूटकर दुबारा कौवों और बाज को खिलाते थे।
मौत के बाद शवों की ऐसी दुर्दशा को तिब्बतवासी एक परंपरा मानते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से मृतक जल्दी भगवान के पास पहुंच कर दूसरा जन्म लेता है। इसके पीछे दूसरी वजह यह भी है कि तिब्बत की जमीन पथरीली है इसलिए वहां जमीन में दफनाना थोड़ा मुश्किल काम होता है साथ ही जलावन और ऊर्जा की कमी की वजह से यह प्रथा प्रचलन में आई।