नीमकाथाना। हर त्यौहार का अपना एक रंग होता है, जिसे आनंद या उल्लास कहते हैं। होली को रंगों के त्यौहार के रूप में मनाते हैं। होली का त्यौहार फाल्गुन मास के पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इसमें एक और रंगों के माध्यम से संस्कृति के रंग में रंगकर सारी भिन्नताएं मिट जाती हैं और सब बस एक रंग के हो जाते हैं। लेकिन एक गांव ऐसा भी हैं जहां, 400 सालों से धुलंडी नहीं मनाई जाती, जी हां हम बात कर रहे हैं गणेश्वर के डूडू महोत्सव की। आपको बता दें कि यहां धुलंडी के दिन रायसल महाराज का राजतिलक हुआ था। इस दिन लोग नए वस्त्र पहनकर पहाड़ी पर स्थित उनकी मूर्ति के दर्शन करने जाते हैं। ये महोत्सव सात दिन तक चलता हैं। जिसमें करीब 15 गांवों के लोग प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते हैं। यहां पर ग्रामीण राजा को ग्राम देवता के रूप में पूजते हैं। धुलंडी पर विशेष पूजा होती है।
दोपहर को शुरू होता है डूडू का मेला
ग्रामीणों के अनुसार मेले में कुश्ती दंगल, निशानेबाजी, ऊंट व घुड़दौड़ जैसी कई प्रतियोगिताएं होती हैं। यह मेला शीतलाष्टमी तक चलता है।
उजड़े हुए गांव भोजपुर्या को वर्तमान गणेश्वर के रूप में बसाया
प्रसिद्ध हड़प्पा-मोहन जोदड़ो सभ्यता के समकालीन प्राचीन ताम्रयुगीन सभ्यता से जुड़े गणेश्वर में धुलंडी पर होने वाला डूडू महोत्सव भी विशेष महत्व रखता है। मान्यता है कि विक्रम संवत 1444 में जन्मे बाबा रायसल महाराज ने उजड़े हुए गांव भोजपुर्या को वर्तमान गणेश्वर के रूप में बसाया था। उनके राजतिलक के दिन को गणेश्वर में डूडू महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। रंगों से दूर रहकर इस दिन यहां के लोग उनके चौसले में प्रतिमा के दर्शन कर आशीर्वाद लेते हैं।
शीतला अष्टमी के दिन खेलते हैं होली, एक दूसरे को लगाते रंग
गणेश्वर में शीतला अष्टमी को उमंग, मस्ती व उत्साह के साथ लोग एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। यहां के रंगोत्सव को देखने भी बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं। पहाड़ी पर स्थित बाबा रायसल महाराज के दर्शनों के लिए कतार लगती है। शाम को पवित्र गर्म पानी के झरने में स्नान करने के बाद होली का पर्व समाप्त होता है।
कंटेंट@ मनीष टांक